बाल एवं युवा साहित्य >> दादी माँ की झोली में दादी माँ की झोली मेंसत्यप्रभा पाल
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इसमें बच्चों के लिए दादी माँ की रोचक 9 कहानियों का वर्णन किया गया है....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
कहानी की कहानी
कहानी, कथा, गल्प कैसे भी हो, मेरा बहुत पुराना व्यसन है। सोचती हूँ, सभी
बच्चों का यही हाल है क्योंकि अक्सर देखा गया है कि घर में जिस-तिस का
पल्ला पकड़ा और पड़ गए पीछे ‘कहानी सुनाओ-कहानी
सुनाओ।’ इस
कहानी-संग्रह की भी ऐसी ही कहानी है। इस संग्रह में कुछ मन से निकली, कुछ
सुनी, कुछ पढ़ीं और कल्पना की उड़ान है। इनकी पृष्ठभूमि है विश्व का
द्वितीय महायुद्ध जब दिल्ली में ‘ब्लैक आउट’ होता था
और
लालटेन की टिमटिमाती रोशनी में हठपूर्वक काकाजी-जीजी से कहानी सुनती
जिनमें रामायण, महाभारत, पुराणों की कहानियाँ तो थीं ही, साथ उनमें विदेशी
कथाकारों की कहानियों का भी समागम होता विशेषत: ग्रिमबन्धु, एण्डरसन,
डिकैन्स, स्टीवनसन आदि की रचनाओं का और लोक कथाएँ भी होती थीं।
आज सोचती हूँ बल्कि महसूस करती हूँ कि गाथा-प्रेमी बच्चा कभी आन्तरिक रूप से असन्तुष्ट नहीं हो सकता। उसे सदा आशा की किरण प्रफुल्ल बनाए रहती है। भविष्य की खिड़की से झाँक सपने बुनता है। कभी एकाकी नहीं रहता क्योंकि कोई-न-कोई पात्र उसका मनोरंजन ही नहीं मार्ग भी प्रशस्त करता है।
आजकल यह विचाराधारा ज़ोर पकड़ रही है कि परी की कहानियाँ या राजा-रानी की कहानियाँ बच्चों को यथार्थ से दूर ले जाती हैं। उन्हें व्यावहारिक सूक्ष्मता नहीं देतीं। मेरा मत है कि बचपन में पढ़ी सुखान्त गाथा से चरित्र में सूझ-बूझ, त्याग, परोपकार की भावनाएँ पनपती हैं। बच्चों को बचपन में कटु भावना से दूर रखना चाहिए। बड़े होने पर स्वयं यथार्थ का सामना कर लेंगे क्योंकि कहानी के पात्र भी तो संकटों से जूझते हैं। आज जीवन की विषमता का य़थार्थ ‘छीन लो’ का पाठ पढ़ाता है किन्तु कहानियों द्वारा दिए गए संदेश में जीवन अमृत है उसे ‘बाँट लो’ का भाव छिपा है। अत: कल्पनाशील, रसभरी परी लोक की सुखान्त कथाएँ नितान्त आवश्यक हैं।
आज सोचती हूँ बल्कि महसूस करती हूँ कि गाथा-प्रेमी बच्चा कभी आन्तरिक रूप से असन्तुष्ट नहीं हो सकता। उसे सदा आशा की किरण प्रफुल्ल बनाए रहती है। भविष्य की खिड़की से झाँक सपने बुनता है। कभी एकाकी नहीं रहता क्योंकि कोई-न-कोई पात्र उसका मनोरंजन ही नहीं मार्ग भी प्रशस्त करता है।
आजकल यह विचाराधारा ज़ोर पकड़ रही है कि परी की कहानियाँ या राजा-रानी की कहानियाँ बच्चों को यथार्थ से दूर ले जाती हैं। उन्हें व्यावहारिक सूक्ष्मता नहीं देतीं। मेरा मत है कि बचपन में पढ़ी सुखान्त गाथा से चरित्र में सूझ-बूझ, त्याग, परोपकार की भावनाएँ पनपती हैं। बच्चों को बचपन में कटु भावना से दूर रखना चाहिए। बड़े होने पर स्वयं यथार्थ का सामना कर लेंगे क्योंकि कहानी के पात्र भी तो संकटों से जूझते हैं। आज जीवन की विषमता का य़थार्थ ‘छीन लो’ का पाठ पढ़ाता है किन्तु कहानियों द्वारा दिए गए संदेश में जीवन अमृत है उसे ‘बाँट लो’ का भाव छिपा है। अत: कल्पनाशील, रसभरी परी लोक की सुखान्त कथाएँ नितान्त आवश्यक हैं।
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